न्यूज डेस्क। छत्तीसगढ़ में दिवाली का त्योहार एक अलग ही रौनक लेकर आता है। यहां धनतेरस से शुरू होने वाले इस त्योहार की खूबसूरती मातर यानि पशुधन और यादव कुल के त्योहार तक बनी रहती है। धनतेरस के दिन दीपोत्सव शुरू हो जाता है। यहां धनतेरस के दिन आंगन में 13 और नरक चैदस पर 14 दिये जलाए जाते हैं।

आज के बाजारीकरण दौर में यह जगह कच्चे मिट्टी के बने बनाए दियों ने ज्यादा ले ली है, नही तो पहले ये दिये घर पर ही महिलाएं तैयार किया करती थीं। कई जगहों पर गोबर से भी ये दिये बनाए जाते थे। पहले के जमाने में धनतेरस और नरक चैदस पर मिट्टी के अलावा चावल आटे और गेहूं के आटे के दिये जलाने की परम्परा थी जो आज भी चली आ रही है। छत्तीसगढ़ में इन दियों के बारे में किवदंती यह भी है कि धनतेरस और नरकचैदस में जलाए गए आटे के दियों को बाद में फरे की तरह उबाल कर घर में प्रसाद के रूप में बांटा जाता था। ताकि परिवार के लोग निरोग रहें। यह दिये नई फसल के धान के आटे से बनाए जाते थे इसीलिए इनका और भी विशेष महत्व माना जाता था।
इन दियों का हिन्दू शास्त्रों में भी वर्णन है। जिसमें विशेष रूप से नरक चैदस के दिन जलाए जाने वाले यम के दिये को आटे का बनाए जाने का विधान है।
कहा जाता है कि यम का दिया यदि आटा का लगाया जाता है जो अकाल मृत्यु के भय को दूर करता है।
वहीं चावल को अक्षत यानि कभी न क्षय होने वाला कहा जाता है। आटे के दिये से आर्थिक संकट, कर्ज से राहत मिलती है।घर में सकारात्मक उर्जा का संचार होता है।
इन दियों को यदि गाय खा ले तो कई जगहों पर लक्ष्मी माता के आगमन और उनके प्रसन्न होने का प्रतीक माना जाता है।
आटे के दिये जलाने से मां अन्नपूर्णा भी प्रसन्न होती हैं। घर में अन्न के भंडार भरते हैं। मन्नतें भी पूरी होती हैं।
चावल के आटे के दीपक (जिन्हें दक्षिण भारत में ‘माँ विलक्कु’ भी कहते हैं) शुभ माने जाते हैं और इन्हें पूजा में इस्तेमाल किया जाता है, खासकर माँ लक्ष्मी और माँ अन्नपूर्णा को प्रसन्न करने के लिए। इन्हें बनाने के लिए, चावल के आटे को थोड़े गुड़ के साथ मिलाकर आटा गूंथा जाता है और फिर उसमें घी भरकर बत्ती लगाई जाती है।
