न्यूज डेस्क। सूती साड़ी, कमर में कर्धन, हाथों में नागमोरी, पैरों में ऐंठी और गले में पुतरी की माला, सिर पर बांस की टोकरी में भरा धान और उसके उपर दो मिट्टी के तोतों की मूर्ति जिस पर जलता छोटा सा दीपक, होठों पर सुआ के गीत गाते जब महिलाओं की टोली गलियों से निकलती है तो लगता है जैसे दिवाली के आगमन का बिगुल बज गया हो। नई फसल और दिवाली के स्वागत में गाये जाने वाले इस गीत में सुआ यानि तोते को महिलाओं का रूप माना गया है जो अपनी सखी से अपने जीवन की व्यथाओं को इस गीत के माध्यम से वर्णन करती है।

राज्य का यह पारम्परिक नृत्य हर गली मोहल्ले में भी छोटी-छोटी बच्चियों को अच्छे से आता है। दिवाली के मौके पर घर के आंगन में महिलाएं मंडलाकार होकर सुआ को रख नृत्य करती है। नारी जीवन की व्यथाओं और घर-परिवार के दुख-दर्द से भरे इस गीत में छत्तीसगढ़ की संस्कृति को बेहद खूबसूरती से दिखाई पड़ती है। इस गीत में जहां पति प्रेम और विरह की वेदना है वहीं सास-ससुर की प्रताड़ना, ननद के नखरे, हिंसक पशु के हृदय परिवर्तन, राजा और भगवान, पक्षियों के कलरव, मायके जाने की आतुरता का वर्णन आता है।
इस गीत को गाने वाली महिलाओं को बायना दिया जाता है। सूपे में कुछ धान या चावल, दाल, नमक, मौसमी सब्जी, मसाले, साड़िया या कुछ पैसे लोग यथाशक्ति महिलाओं को बायने के रूप में देते हैं। बदले में महिलाएं पूरे परिवार को दिवाली की बधाई और घर-परिवार को सुख-समृद्धि से रहने की दुआएं दे जाती हैं। बस यही है तरी हरी ना ना की खूबसूरती।
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